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लेखनी कहानी -22-Dec-2022 नारी तू नारायणी



सुबह सुबह श्रीमती जी के नाजुक नर्म हाथों से बनी चाय की महक और उनकी मीठी मीठी बातों का नाश्ता मिलने के बाद ही आंखें खुलने लगती हैं । वैसे भी हम मर्दों की आंखें ये बीवियां ही खोलती हैं नहीं तो हम मर्द लोग पता नहीं सपनों के कौन से संसार में विचरण करते रहते हैं । जब सुबह सुबह एक खनखनाती हुई आवाज आती है "सुनो जी, सवेरा हो गया है, अब उठ भी जाओ" तो हम "परी लोक" से सीधे "मृत्यु लोक" में धड़ाम से गिर पड़ते हैं । वो तो सामने मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर "चोटों" का अहसास नहीं होता है अन्यथा धड़ाम से गिरने पर कितनी करारी चोटें लगती हैं ये हुस्न वाले क्या जानें ? 

चाय के साथ समाचार पत्र का चोली दामन का साथ होता है । चाय की चुस्कियों के साथ साथ खबरों का नाश्ता ना हो तो जीवन निरर्थक लगने लगता है । हमने अखबार खोलकर देखना शुरू किया ही था कि मुख्य समाचार के रूप में "पद्म पुरस्कारों की घोषणा" शीर्षक पढकर हम चौंके । प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस से पूर्व पद्म पुरस्कारों की घोषणा होती है और कुछ जानी पहचानी हस्तियों को पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री पुरुस्कारों से नवाजा जाता है । चूंकि यह हर वर्ष होने वाला "कुंभ मेला" है इसलिए इस पर कोई ध्यान देता ही नहीं था । सबको पता था कि ये पुरुस्कार किन किन को मिलते आये हैं और कौन कौन लोग इनके दावेदार हैं ? अब तक यही होता आया है कि "अंधा बांटे रेवड़ी , फिर फिर अपनों को दे" । जो जितना बड़ा चाटुकार उसे उतना बड़ा पुरुस्कार । इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था । सभी खैराती लाल , चमचा मल और प्रशस्ति कुमार इन पुरुस्कारों का बेसब्री से इंतजार करते थे । बाकी लोगों को इनमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी । हमने भी इनको पढना बंद कर दिया था मगर विगत कुछ वर्षों से ये पुरुस्कार ऐसे ऐसे "गुदड़ी के लालों" को मिलने लगे थे कि उनका नाम पढकर हमारा सीना गर्व से चौड़ा होने लगा था । अब हम हर गणतंत्र दिवस पर इन पुरुस्कारों का बेसब्री से इंतजार करते हैं ।

इस कारण हमारी उत्सुकता इन पद्म पुरुस्कारों में बढ़ गई थी । हमने एक एक करके नाम पढने शुरू कर दिये । एक नाम पढकर हम ठिठक गये । नाम कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था । "वसुधा गर्ग" का नाम पद्म श्री पुरुस्कार पाने वालों की सूची में था । हम याद करने लगे कि वसुधा गर्ग कौन हैं ? तभी याद आया कि ये तो दूर के रिश्ते में हमारी भाभी लगती हैं । पर ये सोचकर कि उन्हें यह सम्मान कौन देगा , हमने माथा झटक कर यह खयाल अपने दिमाग से निकाल दिया । इतनी विशाल दुनिया में न जाने कितनी वसुधा गर्ग होंगी । हमारी भाभी वसुधा गर्ग को कौन इतना बड़ा सम्मान देगा ? हमने अपने दिमाग से इसे निकालने का भरपूर प्रयास किया मगर दिमाग से यह नाम निकल नहीं रहा था । 

हमने वसुधा भाभी को मोबाइल मिला दिया । फोन वसुधा भाभी ने ही उठाया । हम कुछ देर सोचते रहे कि बोलें या नहीं ? हमारी दुविधा को वे समझ गईं और कहने लगीं "बधाई देने के लिए ही फोन किया है ना आपने भाईसाहब ? तो दे दीजिए ना , अपने पास ही क्यों रखे बैठे हैं अब तक" ? उनकी आवाज में गजब की खनखनाहट थी । 
"नहीं , हम अखबार पढ़ रहे थे तो वो पद्म पुरुस्कार  ...." 
हम अचकचाते हुए कहने लगे । वे सारा माजरा समझ गईं और खनकती हुई हंसी के साथ बोली 
"समाचार बिल्कुल सही है । प्रधान मंत्री कार्यालय से कल फोन आ गया था और मेल से पत्र भी आ गया था । अब शक शुबहा की कोई गुंजाइश नहीं है" । वे जोर से हंसते हुए बोलीं 
"अरे वाह । ये तो बहुत शानदार खबर सुनाई है आपने भाभीजी । बहुत बहुत बधाई हो आपको । आपके जज्बे को सलाम । आपके काम को एक पहचान मिली है । आपके धीरज को इनाम मिला है । आपको और आगे बढने के लिए एक मुकाम मिला है । इसी तरह आप आगे भी काम करते रहिए जिससे एक दिन आप "भारत रत्न" कहलायें" । हमने अपने दिल के सारे उद्गार उनके समक्ष उंडेल दिये थे । 
"धन्यवाद भाईसाहब । आप जैसों के प्रोत्साहन से ही तो मैंने यह मुकाम हासिल किया है । आप आगे भी इसी तरह मुझे प्रोत्साहित करते रहें । दीदी अगर हों तो उनसे बात करा दीजिए ना" 
"जी, मेरे पास ही बैठी हैं । अभी बात करवा देता हूं" और मैंने मोबाइल श्रीमती जी के कोमल हाथों में पकड़ा दिया । 

मैं यादों के भंवर में डूबता चला गया । वसुधा भाभी से मेरी पहली मुलाकात सन 1989 में उनकी शादी के समय हुई थी । मेरे दूर के एक परिचित थे मोहन गर्ग । मुझसे साल दो साल बड़े थे । मेरा विवाह सन 1989 में हुआ था और उनका विवाह मेरे विवाह के 5 महीने बाद हुआ था । उस विवाह के शुभ अवसर पर मेरी और वसुधा भाभी की पहली मुलाकात हुई थी । वे इतनी सुन्दर, हंसमुख, चुलबुली और मासूम थीं कि सबको पहली नजर में ही अपना बना लेती थीं । उन दिनों सलमान खान और भाग्य श्री की डेब्यू मूवी "मैंने प्यार किया" चल रही थी और भाग्य श्री सबके दिलों पर छाई हुई थी । वसुधा भाभी की शक्ल बिल्कुल भाग्य श्री से मिलती थी । वही चेहरा , वही मुस्कान, वही मासूमियत और वही नटखट अंदाज । एक बार तो लगा कि सचमुच भाग्य श्री के साथ भाईसाहब मोहन की शादी हुई थी । मगर वसुधा भाभी भाग्य श्री नहीं थी बल्कि वे तो भाग्य श्री से कहीं अधिक सुंदर, हंसमुख और मिलनसार थीं । ऐसा लगा जैसे मोहन भाईसाहब के भाग्य खुल गये थे । उन्होंने जो तपस्या की थी उसका परिणाम उन्हें मिल गया था । 

वसुधा भाभी की हंसती खेलती जिंदगी बहुत ज्यादा दिन नहीं चल पाई । यह वह दौर था जब घर में सास का साम्राज्य चलता था और ननदों को विशेषाधिकार प्राप्त हुआ करता था । घर की बहू एक नौकरानी से अधिक नहीं होती थी । पर वसुधा भाभी को लगता था कि ससुराल में उन्हें ज्यादा यातनाऐं नहीं झेलनी पडेंगी क्योंकि मोहन भाईसाहब की नौकरी उन दिनों बेंगलोर में थी । वे तो नौकरी पर बेंगलोर ही रहेंगी । 

राजस्थान से बेंगलोर की दूरी बहुत ज्यादा थी इसलिए मोहन भाईसाहब कभी कभार ही गांव आ पाते थे । गांव में उनके पिता का बहुत बड़ा व्यवसाय था । उनके पिता चाहते थे कि मोहन वह व्यवसाय संभाले और घर में रहे । मोहन भाईसाहब नौकरी करना चाहते थे । दोनों पिता पुत्र में इस बात पर झगड़ा होने लगा । वसुधा भाभी भी चाहती थीं कि भाईसाहब नौकरी ही करते रहें मगर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ? 

आखिर में सबने मिलकर फैसला कर लिया कि मोहन भाईसाहब नौकरी छोड़कर अपना पैतृक व्यवसाय संभालेंगे । इस निर्णय को पलटने की ताकत वसुधा भाभी की नहीं थी । यद्यपि उन्होंने अपनी ओर से समस्त प्रयास किये थे । पर होनी को कौन टाल सकता है । उस दिन से वसुधा भाभी की जिन्दगी नर्क बनती चली गई  । 


बुरे दिन कोई ढोल पीट कर नहीं आते , दबे पांव चुपचाप चले आते हैं बिल्ली की तरह । जिंदगी में कोई एक निर्णय ऐसा हो जाता है जिससे उसकी पूरी जिंदगी यू टर्न ले लेती है । ऐसा ही कुछ कुछ वसुधा भाभी के साथ हुआ । यद्यपि मोहन भाईसाहब की नौकरी छोड़ने का निर्णय वसुधा भाभी का नहीं था लेकिन उसके प्रभाव तो उन पर भी पड़ने ही थे । घर में सास ननदों के बीच में रह पाना दुश्वार होता जा रहा था । सास हर बात में अपनी चौधराहट चलाती थी और ननद हमेशा भाभी के विरुद्ध सास को भड़काती थी । पति कब तक साथ दे ? वह भी अपनी मां का बेटा और बहनों का भाई है । आखिर उनसे भी हर वक्त रार नहीं ठान सकता था वह । लंका में विभीषण की तरह रहने लगी थीं वसुधा भाभी । 
दिन गुजरते रहे । आस बंधती रही । आस पर ही तो आदमी जिंदा है । कल शायद अच्छा होगा, सब लोग यही तो सोचते हैं । ननदों की शादी के बाद शायद दिन बदल जायें, वसुधा भाभी सोचती रहती थी । बड़ी ननद की शादी होती उससे पहले ही खुशखबरी आ गई । वसुधा भाभी "उम्मीद" से हो गईं । उनके चेहरे पर आभा बिखर गई । एक तो गर्भ की आभा और दूसरे उल्लास का प्रकाश । खुशियों की रोशनी फैलने लगी थी वसुधा भाभी के जीवन में । बच्चे के साथ वसुधा भाभी के सपने भी बड़े होने लगे । 

आखिर एक दिन वह आ ही गया जिसकी प्रतीक्षा सबको थी । गर्ग खानदान को उसका वारिस मिल गया था । सब लोग बहुत खुश थे मगर यह खुशी ज्यादा देर तक टिकी नहीं रह सकी थी । बच्चे का एक कान गायब था । सब लोग आश्चर्य चकित हो गये थे । विधना ने यह क्या कर डाला ? इससे तो अच्छा था कि बच्चा होता ही नहीं , सब लोग मन ही मन सोच रहे थे मगर कहने की हिम्मत किसी की नहीं थी । गांव में इतनी व्यवस्था नहीं थी कि उसका उपचार हो पाता और इतने छोटे बच्चे को शहर में कहां लेकर जाते ? ईश्वर की लीला समझकर सब लोग चुप रह गये थे । वसुधा के नाम पर बच्चे का नाम वसु रखा गया । 

सासू जी तो जैसी थीं वैसी ही रहेंगी , बदल थोड़ी ना सकती हैं । जब उन्हें पता चला कि बच्चे का एक कान नहीं है तो इसका समस्त दोष उन्होंने वसुधा भाभी पर मंढ दिया "हमारे खानदान में तो कोई नकटा बूचा है नहीं तेरे खानदान में ही होगा कोई , उसी की ही देन है" । बेचारी वसुधा भाभी खून का घूंट पीकर रह गई । रही सही कसर ननदों ने पूरी कर दी । वसु को कोई भी बुआ गोदी में नहीं लेती थी । कहती थीं कि अंग भंग बच्चे को गोदी में लेने से भविष्य में उनके भी अंग भंग बच्चा पैदा हो जायेगा और वे ऐसा हरगिज नहीं चाहती थीं । उनके इस व्यवहार पर मोहन को भी बहुत गुस्सा आता था पर वह भी क्या कर सकता था । जिसके दिमाग में कचरा भरा हो, उसका कोई क्या कर सकता है ? 

वसु को बड़े से बडे डॉक्टर को दिखाया मगर कोई इलाज नहीं बताया गया । यद्यपि वसु को सुनने में कोई परेशानी नहीं थी मगर देखने में वह बड़ा अजीब सा लगता था । वसुधा भाभी की जिंदगी वसु की देखभाल करने में बीतने लगी । इसी बीच दो ननदों की शादी हो गई थी । अब केवल सबसे छोटी ननद बच गई थी इसलिए ननद के ताने कम हो गये थे । पर दोनों ननदों की कमी सास पूरी कर देती थी । उसके ताने बढ गये थे । बात बात पर वह उसके मायके वालों को कोसती रहती थी । जब जब वसुधा भाभी तानों की ज्वाला में झुलसती थीं तब तब "जीना यहां मरना यहां इसके सिवाय जाना कहां" गीत मन ही मन गुनगुना लेती थी और स्वयं को संबल प्रदान कर लेती थी । 

करीब दो साल बाद वसुधा भाभी फिर से उम्मीद से हो गईं । इस बार उन्हें खुशी होने के बजाय चिंता अधिक हुई । कारण बड़ा स्पष्ट था । पता नहीं इस बार बच्चे में क्या कमी रह जाये ? समय समय पर सोनोग्राफी करवाई, सब कुछ नॉर्मल निकलता था फिर भी आशंकाओं के बादल छंटने का नाम नहीं लेते थे । वे मन ही मन स्वयं से बातें करती थीं "भगवान ने मेरे साथ ही नाइंसाफी क्यों की है ? मैंने तो कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा है और कभी किसी का कुछ बुरा भी नहीं सोचा है , फिर ऐसा बच्चा क्यों दिया भगवान ने " ? पर इन प्रश्नों का उत्तर कभी मिला है क्या किसी को जो वसुधा भाभी को मिलता ? 

आखिर वो दिन भी आ ही गया जब एक बार फिर से किलकारियां गूंजने लगी थी । इस बार बच्चा हृष्ट-पुष्ट और बहुत सुंदर था । वसुधा भाभी ने जब उसका एक एक अंग देख लिया और संतुष्टि कर ली तब उनके अधरों पर एक मुस्कुराहट आ पाई थी । तब उन्होंने भगवान को लाखों धन्यवाद दिया और उन अपशब्दों के लिए क्षमा याचना भी की जो कभी कभी निराशा में उन्होंने भगवान को सुना दिए थे । 
वल्लभ के आने के बाद वसुधा भाभी की जिंदगी में फिर से बहारें आ गई थीं । उनका गोल मटोल चेहरा जो कांतिहीन हो गया था और उस पर थोड़ी थोड़ी झुर्रियां पड़ गईं थी, अब पुन: दमकने लगा था । होठों पर मुस्कान खेलने लगी थी । आंखों में चमक आने लगी थी । गाल फिर से सुर्ख होने लगे थे । गले से मीठे तराने फूटने लगे थे और चाल में इतराहट भी आने लग गई थी । 

पर किसी की खुशी दुनिया वालों को कब बर्दाश्त होती है ? न जाने किसकी नजर लग गई वसुधा भाभी की खुशियों को । कहते हैं कि खुशियां पौष माह के दिन की तरह होती हैं जो कब आयीं और कब चली गईं, पता ही नहीं चलता है और दुख 22 दिसंबर की रात की तरह लंबे होते हैं जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेते हैं । वसुधा भाभी की जिंदगी में फिर से अंधेरा छा गया । इस बार यह अंधेरा बहुत घना था । इससे बाहर आना असंभव सा लग रहा था । 

मोहन भाईसाहब को एक दिन बुखार हो गया । बुखार कोई लाइलाज बीमारी तो है नहीं इसलिए चिंता जैसी कोई बात नहीं थी । गांव में जो बंगाली डॉक्टर था, उसी का इलाज ले लिया । तीन दिन हो गये बुखार नहीं उतरा तो थोड़ी चिंता हुई । वसुधा ने शहर चलकर इलाज कराने को कहा तो मोहन भाईसाहब टाल गये । दुकानदारों की एक बहुत बड़ी समस्या है कि वे एक दिन भी दुकान बंद नहीं करना चाहते हैं । चाहे वे बीमार हों या घर में अति आवश्यक काम हो , दुकान बंद नहीं होनी चाहिए  । मोहन भी इसी विचार वाला आदमी था , बुखार को टालता गया । जब कई दिन हो गये तो वसुधा भाभी ने हठ पकड़ ली कि शहर जाकर इलाज करवाओ,  तब जाकर उन्हें शहर ले जाया गया । बड़े अस्पताल में उसे मलेरिया बता दिया और मलेरिया का इलाज शुरू हो गया । धीरे धीरे बुखार उतरने लगा और मोहन ठीक होने लगा । सब चैन की सांस लेने लगे । पर होनी को तो कुछ और होना था । 

एक दिन अचानक मोहन की तबीयत बिगड़ गई । दौरे पड़ने लगे । एक बार नहीं बार बार दौरे पड़ने लगे । उसकी ऐसी हालत देखकर डॉक्टर भी घबरा गये और उसे जयपुर रैफर कर दिया गया । जयपुर में मोहन भाईसाहब को सबसे बड़े अस्पताल सवाई मानसिंह में भर्ती करा दिया गया । डॉक्टरों ने उसके बचने की संभावना बहुत कम बता दी । सब घरवालों के तोते उड़ गये थे । सब लोग शोक के महासागर में डूब गये । एक हंसता खेलता युवक काल के गाल में समाने को तैयार बैठा था । एक कच्ची गृहस्थी उजड़ने ही वाली थी । एक कली जो कभी पूरी तरह खिल नहीं पाई थी, मुरझाने वाली थी । दो छोटे छोटे बच्चे अनाथ होने वाले थे । पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि जो जितना भला और सच्चा इंसान होता है वह उतना ही कष्ट उठाता है । वसुधा भाभी की जिंदगी में अभी कितने कष्ट और लिखे थे, यह किसी को पता नहीं था । 


मोहन भाईसाहब की बीमारी की खबर जंगल में आग की तरह फैल गई । उनका कुशल क्षेम जानने के लिए सब नाते रिश्तेदार आने लगे । वह समय बहुत कठिन था । एक एक पल भारी पड़ रहा था । हम भी उन्हें देखने के लिए अस्पताल पहुंचे थे । वह बड़ा हृदय विदारक दृश्य था । मोहन भाईसाहब कोमा में थे और उनके बचने की रत्ती भर भी उम्मीद नहीं थी । डॉक्टर भी नाउम्मीद हो गये थे । वे लोग अपना किताबी ज्ञान और अनुभव दोनों काम में ले चुके थे पर मोहन भाईसाहब की हालत पर कोई असर नहीं हो रहा था । डॉक्टर बता रहे थे कि कोई दवाई "रिएक्शन" कर गई है । उस दिन पहली बार पता चला कि दवाई किसी की  जान बचाती ही नहीं है बल्कि जान लेती भी है । एक गलत निर्णय जिस तरह जीवन बदल सकता है उसी तरह एक गलत दवाई जान लेवा भी हो सकती है । कमी चाहे डॉक्टर के ज्ञान की हो या दवाई बनाने वाली कंपनी की, भुगतना तो मरीज और उसके परिजनों को ही पड़ता है । 

सब लोगों के चेहरे उतरे हुए थे । निराशा का अंधकार फैला हुआ था और दूर दूर तक आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी । अस्पताल के सारे समाचार गांव में नहीं बताये गये थे । उन्हें बस इतना ही बताया गया था कि हालत में दिनों दिन सुधार हो रहा है । वसुधा भाभी ने "महामृत्युंजय मंत्र जाप" शुरू कर दिया था । यह जाप पूरे तीन दिन तक चला था । तीन दिन तक उन्होंने अन्न जल ग्रहण किये बिना यह जाप किया था । नारी की शक्ति का अनुमान कौन लगा सकता है । उसे केवल महसूस किया जा सकता है । हमने कभी बचपन में "सत्यवान और सावित्री" की कहानी सुनी थी जिसमें सावित्री अपने पति सत्यवान की मृत्यु होने पर यमराज के पीछे पीछे चल दी थी और अपने पति को जीवित करा कर ही वापिस लौटी थी । वसुधा भाभी के महामृत्युंजय मंत्र का ही असर होगा शायद कि मोहन भाईसाहब ने आठवें दिन आंखें खोल दी थीं । सबके चेहरों पर जैसे जान आ गयी थी । गर्ग खानदान का इकलौता बेटा था इसलिए सबने उसके लिए भरपूर दुआऐं की थीं । कहते हैं कि जब दवा काम नहीं करे तो दुआ काम करती है । शायद सभी की दुआऐं काम कर गईं और वसुधा भाभी फिर से सावित्री की तरह मोहन भाईसाहब को यमराज जी से छीन लाईं थीं । 

जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल के डॉक्टरों ने हमें सलाह दी कि अब इन्हें ऐम्स दिल्ली ले जाओ, वहीं इलाज हो सकता है अन्य कहीं नहीं । मरता क्या न करता । कोई विकल्प था ही नहीं । उन्हें लेकर दिल्ली आ गये । महीनों तक उनका इलाज ऐम्स में हुआ तब जाकर वे हिलने डुलने लगे थे । पैरेलेसिस के कारण उनका बायां भाग सुन्न पड़ गया था । बांया हाथ और पैर बेकार हो गये थे और मुंह टेढा हो गया था । दिमाग भी आधा ही रह गया था । धन दौलत पानी की तरह बहाकर, महीनों अस्पताल के चक्कर काट कर भी आधा अधूरा आदमी ही वापस लेकर लौटे थे । 

यह घटना सन 1997 की है । उस समय उनके इलाज पर करीब 50 लाख रुपए खर्च हो गये थे । घर पर चौतरफा मार पड़ी थी । महीनों तक दुकान बंद रही थी इससे लाखों रुपए का घाटा हुआ । इलाज के लिए हर रिश्तेदार की मदद ली गई और करीब 25-30 लाख रुपए का कर्ज हो गया था । सबसे बड़ी बात यह थी कि मोहन भाईसाहब हमेशा के लिए अपंग हो गये थे । अब वे काम करने योग्य नहीं रह गये थे । यह बात सबसे दुखद थी । 

एक फीजियोथेरेपिस्ट को पास के शहर से बुलाकर गांव में रखा गया था । वह दिन रात मेहनत करता था और पूरी ईमानदारी से अपना काम करता था । वसुधा भाभी पूरे घर , बच्चों और मोहन भाईसाहब की देखभाल करती थीं । उनका एक नया अवतार देखने को मिल रहा था । उनमें इतनी ऊर्जा न जाने कहां से आ गई थी । दिन रात काम करने के बाद भी वे कभी थकती नहीं थी । उनमें सहन शक्ति का जैसे अथाह भंडार भरा हुआ था । कभी कभी सास उन्हें ऐसी जली कटी सुना देती थी कि वे जल बिन मछली की तरह तड़पती रह जाती थीं "हमारे तो करम ही फूट गये । जबसे तू आई है अपने संग में दिलद्दर ही लाई है । एक बेटा जन्यो है वो भी नकटा बूचा।  और मेरे छोरा पे न जाने क्या कर दीतो है जो या भी आधो अधूरो हो गयो है । अभी तो और न जाने क्या क्या करैगी" । भाभी को काटो तो खून नहीं । ऐसे ताने सुन सुनकर फूल सी महीने वाली भाभी कांटों की झाड़ सी दिखने लगी थी । 

चौतरफा मार पड़ने से घर की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी । धंधा खत्म हो गया था और वे लोग कर्ज में आकण्ठ डूबे हुए थे । मोहन भाईसाहब कुछ करने की स्थिति में नहीं थे । उनके पिताजी भी तब तक 70 वर्ष के हो गये थे । उनसे इस उम्र में काम की उम्मीद करना अत्याचार की श्रेणी में आता था । ऐसे माहौल में वसुधा भाभी ने एक बहू के बजाय एक बेटे की भूमिका निभाना शुरू कर दिया था । वसुधा भाभी ने दुकान संभाल ली और घर दोनों सास ननद ने संभाल लिया । जैसे तैसे दिन निकलने लगे । अब वसुधा भाभी को दुनियादारी की समझ होने लगी । धीरे धीरे पुराने दिन वापिस लौटने लगे । कर्जा चुकता कर दिया गया और घर में भी संपन्नता आने लगी थी । 

इधर मोहन भाईसाहब के स्वभाव में आमूलचूल परिवर्तन हो गया था । मोहन भाईसाहब पहले बड़े हंसमुख और मिलनसार थे । हौंसला और जोश हिमालय से भी ऊंचा हुआ करता था उनका और वे पूरी दुनिया को अपनी मुठ्ठी में करने का ख्वाब अपनी आंखों में सजाया करते थे । मगर अब वे एक असफल , पराजित, निराश , अपंग और कंठित व्यक्ति थे जो स्वयं को पत्नी पर आश्रित पाते थे । पुरुष में इतना अहंकार होता है कि उसे सब कुछ मंजूर होता है पर पत्नी पर आश्रित होना कतई मंजूर नहीं होता है । उसके अहं को बहुत ठेस लगती है जब वह इस बारे में सोचता है । यद्यपि पत्नियां इतनी समझदार होती हैं कि वे कभी भी भूले से भी ऐसा ना तो कुछ कहती हैं और ना ही कुछ इशारों से जताती हैं मगर पुरुष फिर भी मन ही मन आहत होते रहते हैं । मोहन भाईसाहब की मम्मी जरूर जनाती रहती थीं कि अब घर की मालिक वसुधा बन गई है । 

मोहन भाईसाहब का स्वभाव अजीब सा हो गया था । अभी भी साफ साफ बोल नहीं पाते थे । बड़ी मुश्किल से अपनी बात कह पाते थे । उनका एक हाथ और एक पैर काम नहीं करते थे इसलिए चलने फिरने में भी उन्हें तकलीफ होती थी । इसके अतिरिक्त उन्हें नहाने, धोने, खाने में भी तकलीफ होती थी । वे चाहते थे कि वसुधा भाभी सदैव उनके पास रहें मगर यह संभव नहीं था । अगर वसुधा भाभी ऐसा करतीं तो फिर दुकान कौन संभालता ? वसुधा भाभी उन्हें नहलाने, खाना खिलाने का काम करती थीं और साथ साथ में दुकान भी संभालती थीं । मगर मोहन भाईसाहब इससे संतुष्ट नहीं थे और वे अपनी नाराजगी का इजहार कभी कभार अपने लात घूंसों से कर दिया करते थे । भगवान ने उन्हें अभी भी एक हाथ और एक पैर तो दे रखा था न । बस, वे इनका उपयोग अधिकांशत : भाभी पर ही किया करते थे । इतना सब कुछ होने के बावजूद वसुधा भाभी लात घूंसे खाती रहती थीं और इसी भोजन से वे अपना पेट भरती रहती थीं । अकेले में बैठकर घंटों रोती रहती थीं । शायद धरती माता ने अपना संपूर्ण स्वभाव उनमें भर दिया था इसीलिए घरवालों ने शायद उनका नाम "वसुधा" रख दिया था । दोनों में गजब की प्रतियोगिता थी । धरती माता कहती कि मैं अधिक सहनशील हूं मगर वसुधा भाभी कभी कुछ कहती नहीं थी बस सहन करती रहती थी । आखिर धरती माता ने अपनी हार मान ली थी । 

समय गुजरता रहा । वसु और वल्लभ स्कूल जाने लगे थे । वसु को बच्चे "बूचा बूचा" कहकर चिढाते थे । वह रोता हुआ घर आता था । वसु को रोता देखकर भाभी अंदर तक टूट जाती थी मगर अपने नैनों में एक भी आंसू आने नहीं देती थी । बड़ी मुश्किल से वे वसु को समझा पाती थी । वल्लभ स्वस्थ था और हृष्ट-पुष्ट भी था इसलिए वह अपने बड़े भाई के अपमान का बदला लेने के लिए हर किसी से भिड़ जाता था । 


अपनी दयनीय स्थिति को भूलकर वसुधा नये मेहमान के स्वागत की तैयारियां करने लगी । वैसे तो उसने अपने दोनों बेटों के लिए बहुत से कपड़े सिले थे मगर अब तक उसने कोई फ्रॉक नहीं सिली थी । उसे फ्रॉक सिलने का मौका मिला भी नहीं था । उसके मन में आने वाली लाडो के लिए ढेर सारा लाड उमड़ने लगा । वह उसके लिए तरह तरह के कपड़े तैयार करने लगी । स्वेटर बुनने लगी । कभी कभी तो वह आईने के सामने खड़ी होकर खुद को निहारने लगती थी । वह खुद में अपनी बेटी का अक्स महसूस करने लगी थी । वैसे खुद को निहारना तो कब की भूल चुकी थी वह । उसे देखने वाला अब कौन है ? मोहन भाईसाहब को अब उनमें कुछ खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी । शादी के बाद तो उनसे पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल काम था पर अब वे भाभी पर ध्यान ही नहीं देते थे । 

सास को तो बहू का बनाव सिंगार वैसे भी पसंद नहीं आता है । जरा सा मेकअप करने बैठती थी तो सास झल्ला पड़ती थी "मेकअप से फुरसत मिल जाये तो चाय बना देना" । ऐसी बातें सुनकर भला कौन मेकअप करने बैठेगा ? खुद से अधिक सुंदर भाभी किस ननद को पसंद आती है ? जब देखो तब कहती रहती थीं "कितना भी रंग रोगन कर ले , हेमा मालिनी तो नहीं बन सकती है" ।  इन सब कारणों से वसुधा ने सजना संवरना छोड़ दिया था । अब उसके मन में सोई हुई उमंगों ने फिर से अंगड़ाइयां लेना प्रारंभ कर दिया था । अपनी बेटी के सामने वह अच्छी तरह से आना चाहती थी । इसलिये उसने खुद पर ध्यान देना शुरू कर दिया था । उसकी बेटी उससे भी अधिक सुंदर होगी, वह मन ही मन ऐसा सोचती थी । 

एक दिन मोहन भाईसाहब ने उसे अस्पताल चलने के लिए कहा । चैकअप कराना आवश्यक था इसलिए वह चली गई  । सब जांचें हो गई तो वह वापिस घर आ गई । रात को उसने महसूस किया कि मोहन भाईसाहब थोड़े उदास हैं । वसुधा ने उदासी का कारण पूछा तो वे टाल गए । वसुधा ने जब उन्हें अपनी सौगंध खिलाई तब उन्होंने कहा "वसुधा , लगता है कि बेटी के लिए हमें अभी और इंतजार करना होगा" ।
इन शब्दों को सुनकर वसुधा चौंकी "क्या मतलब ? इंतजार,  कैसा इंतजार" ? उनके स्वर में चिंता थी । 
"तुम्हारे पेट में बेटी नहीं बेटा है । डॉक्टर बता रहा था । इसे निकलवाना पड़ेगा" । मोहन भाईसाहब कुछ सोचते हुए बोले । इन शब्दों को सुनकर वसुधा सकते में आ गई थी । उसने तो भगवान से बेटी मांगी थी पर ये बेटा कहां से आ गया ? उसे विश्वास नहीं हुआ इसलिए उसने दुबारा पूछा 
"आपको कैसे पता चला" ? 
"डॉक्टर ने लिंग परीक्षण किया था । उसकी रिपोर्ट के आधार पर कह रहा था" 
"पर लिंग परीक्षण करना तो गैर कानूनी होता है न" ?
"हां, वैसे तो गैर कानूनी है, पर सब करते हैं । इस देश में सब हो जाता है" 

वसुधा कुछ नहीं बोली । सोचने लगी कि लोग तो लड़की पैदा नहीं हो यह चाहते हैं मगर वे तो लड़की पैदा करने के लिए सोनोग्राफी करा रहे थे । मगर सोनोग्राफी ने तो उनके होश उड़ा दिये थे । एक प्यारी सी गुड़िया की कामना थी पर क्या वह भी पूरी नहीं होगी ? पेट में पल रहे इस बच्चे से उसे कितना लगाव हो गया था । क्या उस अजन्मे बच्चे को वह पेट में ही मरवा देगी ? कल तक तो यह बच्चा उसकी आंखों का तारा था, राजदुलारा था । आज यह पता चलते ही कि वह एक लड़की नहीं बल्कि लड़का है , केवल इसलिए उसे गिरवा देगी ? इस भ्रूण हत्या का पाप क्या वह सह लेगी ? उसके विचारों की श्रंखला दौड़ने लगी थी । 

अचानक वह जोर से चीखी "नहीं" । मोहन एकदम से चौंक गया । वसुधा भाभी का चेहरा पत्थर की तरह कठोर था । मोहन भाईसाहब कुछ समझ नहीं पाये कि वसुधा के मन में क्या चल रहा था । उन्होंने साफ करने के उद्देश्य से पूछा 
"क्या नहीं" ? 

वसुधा भाभी थोड़ी देर खामोश रहीं फिर बोलीं 
"यही कि मैं एबॉर्शन नहीं करवाऊंगी" । 
मोहन भाईसाहब चौंक गये "ये क्या कह रही हो ? क्या तुम नहीं चाहती हो कि हमारे घर एक परी आये" ? 
"चाहती क्यों नहीं हूं , खूब चाहती हूं पर इस बच्चे का क्या कसूर ? क्या इसे ऐसे ही मार दूं" ? 
"हमारे पास और क्या विकल्प है" ? 
"बेटा या बेटी पैदा करने का विकल्प हमारे पास नहीं है । ईश्वर का विधान हम नहीं बदल सकते हैं । मैं किसी भी हालत में इस बच्चे को नहीं गिरवाऊंगी । बाकी आप जानो" । 
जब एक नारी तय कर लेती है कि उसे क्या करना है तो फिर उसे डिगाने वाला कोई नहीं हो सकता । वसुधा ने यह तय कर लिया था कि इस बच्चे को जन्म देना है तो फिर उस बच्चे को तो जन्म लेना ही था   मोहन भाईसाहब मन मसोसते ही रह गये । अब एक बच्चा और करना पड़ेगा , वे कभी कभी कह देते थे तो वसुधा कहती "अगला बच्चा लड़की ही होगा , इसकी गारण्टी है क्या" ? इस पर मोहन की बोलती बंद हो जाती । इसी तरह लड़ते भिड़ते दिन व्यतीत होते रहे । वसुधा ने तो उस बच्चे का नाम भी सोच लिया था । यह बच्चा ईश्वरीय वरदान की तरह आ रहा था इसलिए इसका नाम "वरदान" सही रहेगा, ऐसी उसकी सोच थी । 

ठीक समय पर बच्चा हुआ । पर यह क्या ? यह तो लड़की थी । वसुधा आश्चर्य से भर गई थी । उसने भगवान का लाख लाख शुक्रिया अदा किया कि उसने उसकी पुकार सुन ली थी । अगर वह यह बच्चा गिरवा देती तो ? जिसे पैदा होना होता है, वह पैदा हो ही जाता है । यह बच्ची इसका साक्षात उदाहरण थी । मोहन की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था । पर वह रिपोर्ट ? क्या वह झूठी थी ? पर कोई झूठी रिपोर्ट क्यों तैयार करेगा ? लोग कहते भी थे कि आजकल डॉक्टर लोग पैसा कमाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं । क्या यही "नोबल प्रोफेशन" कहलाता है ? धिक्कार है ऐसे डॉक्टर और नर्सों पर जो पैसे की खातिर किसी भी हद तक गिर सकते हैं । 

गुड़िया के आने से घर में एक बार फिर से रौनक आ गई थी । वसुधा का फ्रॉक सिलने का सपना पूरा हो गया था । उसका नाम वंशिका रखा गया । वंशिका के लिए दोनों भाइयों में झगड़ा होने लगा । तब वंशिका ने दोनों के लिये टाइम फिक्स कर दिया था । लेकिन झगड़ा वंशिका के लिए हो ही जाता था किसी भी बात पर । दोनों भाई उस पर जान छिड़कते थे । 

वंशिका के साथ खुशियों के सागर में गोते लगाते लगाते वसुधा अपने दुखों को भूल गई थी । कबूतर के आंख बंद कर लेने से बिल्ली भाग नहीं जाती है । वसुधा का जीवन तो एक तपस्या कुंड की तरह से था जिसमें कोई न कोई यज्ञ चलता ही रहता था । एक खत्म होता तो दूसरा तुरंत चालू हो जाता था । 

वंशिका का स्कूल में एडमिशन करा दिया गया था । वह अभी चार पांच दिन ही स्कूल गई थी कि एक दिन स्कूल से एक अध्यापक आये । कहने लगे कि वंशिका कक्षा में बैठे बैठे ही लुढ़क गई थी । अभी बेहोश है । यह सुनकर वसुधा भाभी घबरा गई और उस अध्यापक के साथ स्कूल पहुंची । जब वह स्कूल पहुंची तब तक वंशिका को होश आ चुका था और वह खेलने लगी थी । वसुधा को लगा कि कोई चक्कर आ गया होगा इसलिए वह बेहोश हो गई होगी । यह एक आम समस्या है इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं है । 

वसुधा लौटकर घर आ गई । बात आई गई हो गई । सब लोग अपने अपने काम में व्यस्त हो गये थे । जिंदगी रोजमर्रा की तरह चलने लगी थी । 


जिंदगी में इतने आंधी तूफान देखने के पश्चात हर कोई व्यक्ति विचलित हो जाता है । उसका दिमागी संतुलन गड़बड़ा जाता है । पर वसुधा पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी कि उस पर इन आपदाओं का कोई असर नहीं होता था ।उसमें शायद परिस्थितियों के साथ सामञ्जस्य बैठाने की शक्ति एक आम आदमी से कहीं बहुत अधिक थी । इसीलिए वह इतने झंझावातों से गुजरने के बावजूद अविचलित सी लगती थी । एक तो स्त्री को वैसे ही भगवान ने बहुत सहनशील बनाया है पर वसुधा को शायद यह गुण जरूरत से अधिक दिया था विधाता ने । इतना सब कुछ होने के बावजूद उसके होठों पर एक मुस्कान सदैव खेलती रहती थी । शायद यही कारण था कि वह हर मुश्किल परिस्थिति से पार पा लेती थी । 

वंशिका के रूप में प्रकृति खुद वसुधा के घर में आई थी । उसकी भोली सी मासूम सी बाल क्रीड़ाऐं देखकर न केवल वसुधा वरन मोहन भी अपने समस्त गम भूल जाता था । अब मोहन के स्वभाव में थोड़ा थोड़ा बदलाव आ रहा था । एक निराश , हताश मोहन अब कम चिड़चिड़ाने लगा था । वंशिका के साथ वह खूब खेलता था । उसे मुस्कुराये हुए वर्षों हो गये थे लेकिन जब तक वह वंशिका के साथ खेलता था तब तक वह न केवल मुस्कुराता था अपितु कभी कभी तो पेट पकड़कर हंस भी लेता था । बाप बेटी की जुगलबंदी को देखकर वसुधा बहुत खुश होती थी । जिंदगी शायद एक बार फिर से करवट बदल रही थी । 

एक दिन वसुधा दुकान पर बैठी थी और वंशिका मौहल्ले के बच्चों के साथ सामने ही खेल रही थी । अचानक वंशिका गिर पड़ी और जमीन पर पड़ी पड़ी कंपकंपाने लगी । सब बच्चे डरकर उससे दूर हट गये । वसुधा दौड़कर वंशिका के पास गयी और उसे गोदी में उठाकर अपनी दुकान ले आई । एक जगह उसे लिटा दिया और पानी के कुछ छींटे वंशिका पर मारे तो उसने आंखें खोल दी । वसुधा की जान में जान आ गई । उसकी दुकान पर भीड़ इकठ्ठी हो गई थी । लोग तरह तरह की बातें करने लगे थे । कोई कह रहा था कि बच्ची को "ताण" आते हैं तो कोई "ऊपर की हवा का असर" बता रहा था । अब तक वसुधा संयम रखे हुए थी मगर लोगों की बातें सुनकर उसका संयम टूट गया और उसकी आंखों से गंगा जमना बहने लगी । जमाने वाले यदि खुशी नहीं दे सकते हैं तो फिर दर्द भी क्यों देते हैं ? बड़ा खूबसूरत सवाल था जिसका जवाब कहीं नहीं था । फिर वह अपने दिल को तसल्ली देते हुए कहती "जिसके पास जो होगा , वही तो देगा वह" । तब वह सोचती कि लोग कितने "कंगाल" हैं । देखने में तो ये अमीर लगते हैं पर वास्तव में ये खस्ताहाल हैं । पैसा चाहे कितना ही क्यों न हो इनके पास मगर इनके पास खुशियों के चंद तिनके भी नहीं हैं । आनंद का अकाल है इनके जीवन में । इन्होंने पैसे को ही आनंद का एकमात्र स्रोत मान लिया है जबकि पैसा तो दुखों का जनक है । इससे जो खुशी मिलती है वह क्षणिक है, स्थाई नहीं । ऐसा सोचकर वह जीने की कोशिश करती थी ।

वंशिका के साथ ऐसा दूसरी बार हुआ था । खतरे का सायरन बज चुका था अब तो इससे निबटने की व्यवस्था करनी थी । गांव में इस रोग को "मिरगी" कहते थे और इसे एक भयंकर बीमारी बताते थे । गांव में अब एक सरकारी अस्पताल खुल गया था । मोहन और वसुधा दोनों जने वंशिका को लेकर अस्पताल चले गये । डॉक्टर ने सारा हाल सुनकर कहा "लक्षण तो ऐपीलेप्सी के लग रहे हैं । आपको जयपुर जाकर किसी अच्छे न्यूरो फिजीशियन को दिखाना चाहिए" । उसने कुछ दवाइयां लिख दी और दोनों जने घर लौट आये । 

डॉक्टर की सारी बातें वसुधा को समझ नहीं आई । वह तो इतना ही जानती थी कि कोई बड़ी बीमारी है वंशिका को । अभी कितनी छोटी है वंशिका और इस उमर में इतनी बड़ी बीमारी ? तब मोहन भाईसाहब कहते "यह तेरा भ्रम है । कोई बीमारी वीमारी नहीं है । उस पागल डॉक्टर को आता ही क्या है ? केवल एम बी बी एस है वह । आजकल इनको पूछता ही कौन है ? कल अपन दोनों जयपुर चलेंगे और वहां पर किसी बड़े डॉक्टर को दिखाऐंगे । फिर सब ठीक हो जायेगा" । 

कहने वाले को भी पता होता है कि सब ठीक नहीं होगा और सुनने वाले को भी पता है कि सब कुछ ठीक नहीं होगा । मगर फिर भी सब लोगों को यह सुनना बड़ा अच्छा लगता है "सब ठीक हो जायेगा" । इन चार शब्दों में पता नहीं कैसा जादू है कि इनको सुनकर एक बार तो मुरदे में भी जान आ जाती है । सकारात्मकता से भरपूर ये चार शब्द एक भग्न, निराश, हताश मन में आशा का संचार कर देते हैं । सीलन की बदबूदार कोठरी में ताजी हवा का झोंका भर देते हैं । कंटकाकीर्ण पथ पर नाजुक पुष्प वर्षा कर देते हैं और आगे बढने की प्रेरणा देते हैं   इन शब्दों से वसुधा की दग्ध छाती को कुछ शीतलता सी मिली थी । 

दूसरे दिन सुबह सुबह ही दोनों जने वंशिका को लेकर जयपुर शहर में आ गये । लोगों से मालूम किया कि सबसे बढिया न्यूरो फिजीशियन कौन है तो लोगों ने डॉक्टर तिनसुखिया को सबसे अच्छा डॉक्टर बताया । मोहन और वसुधा डॉक्टर तिनसुखिया के अस्पताल में आ गये । यहां आकर पता चला कि यहां तो भीड़ लगी हुई है । 
"हाय राम, इतने सारे लोग ? सब इसी बीमारी वाले हैं या कुछ दूसरी बीमारी के भी हैं" ? बेसाख्ता निकल पड़ा था वसुधा के मुंह से । 
"चलो, काउण्टर पर चलकर पूछते हैं" मोहन ने दिलासा देते हुए कहा । 

जब वे दोनों काउंटर पर गये तो देखा वहां पर एक लंबी लाइन लगी हुई थी । वे दोनों भी उसी लाइन में खड़े हो गये । करीब एक घंटे बाद उनका नंबर आया । काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने बताया कि आज बुक करवाने पर एक माह बाद नंबर आयेगा । मतलब कि एक माह तक डॉक्टर पहले से बुक है । वंशिका को देखने का नंबर एक महीने बाद आएगा । मोहन और वसुधा दोनों चौंक पड़े थे । ऐपीलेप्सी के इतने मरीज होंगे , ऐसी कल्पना नहीं की थी मोहन ने । मगर यहां तो सब कुछ साफ साफ दिख रहा है । एक कहावत है ना कि हाथ कंगन को आरसी क्या और पढे लिखे को फारसी क्या ? मोहन ने नजदीक की कोई तारीख मिल जाये इस उम्मीद से कहा 
"भैया जी, माफ करना हम लोग बहुत दूर से आये हैं और हमारी बिटिया की हालत भी बड़ी नाजुक है । कोई आजकल की तारीख मिल जाती तो अच्छा होता । हम लोग दुगनी फीस देने को तैयार हैं" । 

काउंटर वाला हंसा और बोला "बाबूजी , यहां दुगनी तिगुनी  फीस नहीं ली जाती है । यहां तो एक ही फीस है और वह 500 रुपया ही है । ना कम ना ज्यादा । रही बात बीमारी की तो यह बीमारी ही ऐसी है कि हर मरीज की हालत नाजुक सी ही होती है । अब आप एक तरफ हो जाइये और दूसरे लोगों को आने दीजिए" । 
मोहन और वसुधा ठगे से हतप्रभ से हताश, निराश वहीं खड़े रहे । इतने में पीछे खड़े लोगों ने धकिया कर उन्हें एक साइड में कर दिया और बड़बड़ाते हुए निकल गये "न जाने कहां कहां से आ जाते हैं साले । एक बार समझा दिया, दो बार समझा दिया फिर भी समझ में ही नहीं आता है इनके" । 

मोहन और वसुधा रो धोकर सरकारी अस्पताल सवाई मानसिंह में आ गये । यहां तो जैसे महासागर था । मेला सा लग रहा था । भांति भांति की बीमारी भांति भांति के मरीज । ऐसे ऐसे मरीज थे वहां पर जिनकी कल्पना भी मोहन और वसुधा नहीं कर सकते थे । जब तक हम लोग किसी ज्यादा दुखी इंसान से नहीं मिलते हैं तब तक अपना दुख सबसे ज्यादा लगता है । लेकिन जब औरों को ज्यादा तकलीफ में देखते हैं तब अपना दुख बहुत हलका लगने लगता है । अस्पतालों में चाहे इलाज हो या ना हो पर वहां पर अपना दुख जरूर कम हो जाता है । बिना इलाज के ही तकलीफ कम महसूस होना क्या कोई कम उपलब्धि है इन अस्पतालों की ? 

जैसे तैसे करके मोहन और वसुधा डॉक्टर के पास पहुंच गये । डॉक्टर के पास सब कुछ होता है सिवाय समय के । इतने सारे मरीज और डॉक्टर केवल दो , कैसे काम चले ? एक मरीज को अधिकतम एक से दो मिनट मिलते थे । इसमें डॉक्टर ने जो कुछ देख लिया , समझ लिया , उसी के हिसाब से दवाई लिख देता है । पर दवाई लिखने से पहले कुछ जांचें जरूरी होती हैं । वंशिका के लिए भी डॉक्टर ने कुछ जांचें लिख दी और डॉक्टर ने कम्पाउण्डर की ओर इशारा करके उन्हें वहां भेज दिया । मोहन और वसुधा कम्पाउण्डर के पास आ गये । कम्पाउण्डर उन्हें समझाने लगा कि अस्पताल की मशीनें खराब हैं इसलिए प्राइवेट ऐजेन्सी से ही जांच करवानी होगी । अस्पताल की मशीनें अमूमन खराब ही रहती हैं या खराब बता दी जाती हैं, कुछ पता नहीं । कमीशन तो प्राइवेट ऐजेन्सी से ही मिलता है ना ? "फलानी" ऐजेन्सी की मशीनें बिल्कुल लेटेस्ट हैं इसलिए वहां से जांच करवाने से बिल्कुल सही रिपोर्ट आयेगी । डॉक्टर साहब का नाम देखकर यह ऐजेन्सी 10% डिस्काउंट भी देती है । 

इतनी सारी खूबियां बता दी थी उसने कि अब किसी और ऐजेन्सी से जांच कराने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं हो सकता था । दो दिन में जांच रिपोर्ट आईं फिर उन्हें लेकर डॉक्टर को दिखाया और फिर डॉक्टर ने दवाई लिख दी । मोहन ने पूछा भी था कि बीमारी क्या है ? पर डॉक्टर इतना बड़ा विशेषज्ञ होता है कि वह हर ऐरे गैरे को कुछ बता नहीं सकता है । डॉक्टरों का मानना है कि मरीज और उसके सहायकों से बात नहीं करनी चाहिए और न ही उन्हें बीमारी के बारे में बताना चाहिए । ऐसा करने से डॉक्टर की वैल्यू डाउन होती है । मरीज और उसके घरवाले जायें भाड़ में , इससे उन्हें क्या ? 

पांच दिन दर दर की ठोकरें खाने के बाद और हजारों रुपया फूंक देने के बाद दोनों जने वंशिका को लेकर गांव वापस आ गये । डॉक्टर ने कुछ बताया नहीं था, पर्ची पर क्या लिखा था यह केवल डॉक्टर ही पढ सकता था और जांच रिपोर्ट देखना उसे आता नहीं था इसलिए मोहन बड़े असमंजस में था । "किसको बतायें, कौन सुनेगा इसलिए चुप रहते हैं" यही सोचकर वह खामोश था । वसुधा भी क्या करती ? समय पर दवाई देना और वंशिका का ध्यान रखना , बस यही दो काम रह गये थे उसके पास । 

समय का चक्र बड़ी तेजी से घूमता है लेकिन वसुधा के लिए समय का पहिया जैसे थम गया था । दवाइयों से वंशिका को कोई आराम नहीं हुआ । उल्टे उसके दौरों की संख्या बढ गई थी । वंशिका की बीमारी की चर्चा पूरे गांव में हो रही थी । वंशिका को स्कूल भेजना बंद कर दिया था वसुधा ने । एक एक दिन में दस दस बार दौरे आने लगे थे वंशिका को । पानी अब सिर के ऊपर से गुजरने लग गया था । लोगों ने उसे दिल्ली में इलाज कराने की सलाह दे डाली । वसुधा भी सोचने लगी थी । 



मोहन और वसुधा वंशिका को लेकर ऐम्स, दिल्ली आ गये । यहां वंशिका को दिखाया तो डॉक्टरों ने बताया कि वंशिका को भर्ती कराना पड़ेगा । और कोई विकल्प नहीं था इसलिए वंशिका को ऐम्स में भर्ती करा दिया और दोनों वहीं रहकर वंशिका का इलाज कराने लगे । वंशिका के दौरे कम होने का नाम नहीं ले रहे थे । उसकी दिमागी नसों में जगह जगह गांठ बनी हुई थी । ऑपरेशन बहुत खतरनाक था जिसके सफल होने की संभावना भी बहुत कम थी । गांठें भी इतनी ज्यादा थीं कि सबका ऑपरेशन संभव भी नहीं था । जोखिम उठाने को न तो डॉक्टर तैयार थे और न ही मोहन और वसुधा । इसलिए ऑपरेशन टाल दिया गया । 

छ: महीने तक वंशिका अस्पताल में भर्ती रही थी । इन छ: महीनों में सारा पैसा पानी की तरह बह चुका था और मोहन फिर से कर्जदार हो गया था । छ: महीने से दुकान भी बंद सी ही थी इसलिए धंधा भी चौपट हो गया था । खाने के लाले पड़ गये थे । जिंदगी भी न जाने कैसे कैसे दिन दिखाती है । जो हालत मोहन की बीमारी के समय हो गई थी वैसी ही हालत अब हो गई थी । धंधा था नहीं और दिल्ली में रहने और इलाज करवाने में पैसा तो चाहिए । रिश्तेदार भी कब तक मदद करते ? यह तो अंतहीन सिलसिला था । लोगों ने अब अपना पैसा वापिस मांगना शुरू कर दिया था । मोहन कहां से लाता पैसा ? जिस किसी से जो भी भाव मिला मोहन ने उससे पैसा लेकर लौटाया । इससे कर्जा दिन दूना रात चौगुना बढ गया । इससे तंग आकर एक दिन मोहन घर से कहीं निकल गया । उसके बाद मोहन को किसी ने नहीं देखा । ना जिंदा और ना मुर्दा । 

इस तरह वसुधा भाभी इस भरी दुनिया में निपट अकेली रह गई । वह भागकर कहां जाये ? इन तीन बच्चों और सास ससुर को छोड़कर जाने की उसमें हिम्मत नहीं थी । समस्याओं से भागना बहुत आसान होता है लेकिन उनका सामना करना बहुत मुश्किल होता है । वसुधा का जन्म आसान काम करने के लिए नहीं हुआ था उसे तो ईश्वर ने कोई बड़े काम के लिए भेजा था शायद । हौंसलौं का दूसरा नाम वसुधा है । अब तक वसुधा ने अपने धीरज का बहुत इम्तिहान दे लिया था अब तो उसके अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा था । पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी वसुधा भाभी कि वह हर परिस्थिति में भी मुस्कुराने की हिम्मत कर लेती थी । 

सबसे पहले तो उसने वंशिका को अस्पताल से छुट्टी दिलवाई । डॉक्टर भी अब मानने लगे थे कि वंशिका को अस्पताल में रखने का कोई औचित्य नहीं है । "जब कोई ज्यादा समस्या आ जाये तो अस्पताल ले आना" ऐसा कहकर वंशिका की छुट्टी कर दी । चलो, अस्पताल से तो पीछा छूटा । वंशिका के दौरे तो अब भी पड़ते थे मगर अब इनकी संख्या कम हो गई थी । अब वसुधा के समक्ष अपना जीवन यापन करने की चुनौती थी । गांव में रहकर जीवन गुजारे या यहां दिल्ली में , यही यक्ष प्रश्न था । दिल्ली में रहने से दो फायदे थे । एक तो वंशिका के लिए जरूरत के समय चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध थी दूसरे दोनों बच्चे किसी अच्छे स्कूल में पढ सकते थे । उसने यही विकल्प चुना । गांव में अपना मकान दुकान सब बेचकर वह दिल्ली आ गई । सबसे पहले तो उसने अपने ऊपर चढा कर्ज चुकता किया फिर एक दुकान किराये पर लेकर उसने काम करना शुरू कर दिया । दोनों बच्चों को दो अलग अलग स्कूलों में भर्ती करवाया जिनकी अलग अलग शिफ्ट थी । इससे एक लड़का उसके पास अवश्य होता था । अपने सास ससुर को भी साथ में लेकर आ गई थी वह इसलिए ससुर दुकान में और सास घर के काम में उसकी मदद कर देती थी । धीरे धीरे दुकान चल निकली और उसने एक फ्लैट खरीद लिया । उसमें पूरा परिवार रहने लग गया । 

वंशिका को स्कूल भेज नहीं सकते थे । उसे चौबीसों घंटे निगरानी में रखना होता था । अस्पताल में वंशिका की तरह अनेक बच्चे थे जो कि ऐपीलेप्सी से भयंकर रूप से पीड़ित थे । उसने अपने मकान के एक कमरे में ऐसे बच्चों को रखना शुरू कर दिया और वह इनकी देखभाल करने लगी । इस तरह उसका "ऐपीलेप्सी केयर सेन्टर" शुरू हो गया । धीरे धीरे इसमें बच्चों की संख्या भी बढने लगी । ऐम्स के कुछ डॉक्टरों ने इसमें न केवल पैसा दिया अपितु मुफ्त में सेवाऐं देना भी शुरू कर दिया । बाद में वसुधा ने एक फ्लैट और खरीद लिया तथा उसमें यह सेन्टर चलने लगा । 

आज वसु और वल्लभ दोनों इंजीनियर हैं । एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं । पूरा परिवार इस सेन्टर के प्रति समर्पित है । उन्हें यही लगता है कि शायद भगवान ने इस काम के लिए उन्हें ही चुना है । इस सेन्टर में लगभग पचास बच्चे रह रहे हैं । वसुधा इनके लिये मां और बाप दोनों ही है । अपनी निस्वार्थ सेवा की बदौलत वसुधा ने यह मुकाम पाया है । उसके काम का जिक्र शायद कहीं सरकार में हुआ हो , तभी तो उसे पद्म श्री जैसे पुरुस्कार से नवाजा गया है । जितनी परीक्षा वसुधा की ली है भगवान ने, उतनी किसी और की ना ले भगवान, क्योंकि हर कोई "वसुधा" नहीं होता । लोग टूट कर बिखर जाते हैं । वसुधा के जज्बे, धीरज और काम को नमन है । 

समाप्त 

श्री हरि 
26.12.22


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11 Comments

Parangat Mourya

27-Dec-2022 03:10 PM

Behtreen 🙏🌸

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Varsha_Upadhyay

26-Dec-2022 02:02 PM

👌👏🙏🏻

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